आक्षेप संख्या—6
Rig Veda 1.103.6 “…The Hero, watching like a thief in ambush, goes parting the possessions of the godless.” Tr. Ralph T.H. Griffith
आक्षेप का उत्तर—
यहाँ ये महाशय वैदिक ईश्वर को चोर बता रहे हैं और उसके लिए ग्रिफिथ के द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं, जैसे ग्रिफिथ कोई वेदों का बहुत बड़ा विद्वान् हो। जिन विदेशी भाष्यकारों का उद्देश्य ही वेद को बदनाम करना हो, उसे प्रमाण रूप में प्रस्तुत करना दुर्भावना का ही परिचायक है। आप लोगों को अपने चौथे और सातवें आसमान पर रहने वाले ईश्वर की लीलाएँ तो दिखती नहीं, इधर आरोप लगाने चले। जहाँ तक स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती के अनुवाद का प्रश्न है, तो उन्होंने ईश्वर को नास्तिक और जनता के शोषक अर्थात् चोर, डाकू और ज्ञान के शत्रु से धन छीनकर ईमानदार लोगों को देने की बात कही है, उसको आपने चोरी कैसे बता दिया? मुस्लिम और ईसाई आक्रान्ता भारतवर्ष का धन लूटकर ले गये, क्या वह आपकी दृष्टि में अच्छा था? और दुुष्ट से धन लेकर सज्जन को देना चोरी कैसे हो गया? ये संस्कार आपके हो सकते हैं, हमारे नहीं। अब हम यहाँ ऋषि दयानन्द का भाष्य प्रस्तुत करते हैं—
भूरिकर्मणे वृषभाय वृष्णे सत्यशुष्माय सुनवाम सोमम्। य आदृत्या परिपन्थीव शूरोऽयज्वनो विभजन्नेति वेद: ॥ (ऋ.1.103.6)
पदार्थ: — (भूरिकर्मणे) बहुकर्मकारिणे (वृषभाय) श्रेष्ठाय (वृष्णे) सुखप्रापकाय (सत्यशुष्माय) नित्यबलाय (सुनवाम) निष्पादयेम (सोमम्) ऐश्वर्य्यसमूहम् (य:) (आदृत्य) आदरं कृत्वा (परिपन्थीव) यथा दस्युस्तथा चौराणां प्राणपदार्थहर्त्ता (शूर:) निर्भय: (अयज्वन:) यज्ञविरोधिन: (विभजन्) विभागं कुर्वन् (एति) प्राप्नोति (वेद:) धनम्।
भावार्थ: — अत्रोपमालङ्कार:। मनुष्यैर्यो दस्युवत् प्रगल्भ: साहसी सन् चौराणां सर्वस्वं हृत्वा सत्कर्मणामादरं विधाय पुरुषार्थी बलवानुत्तमो वर्त्तते, स एव सेनापति: कार्य्य:।
पदार्थ — हम लोग (य:) जो (शूर:) निडर शूरवीर पुरुष (आदृत्य) आदर सत्कार कर (परिपन्थीव) जैसे सब प्रकार से मार्ग में चले हुए डाकू दूसरे का धन आदि सर्वस्व हर लेते हैं, वैसे चोरों के प्राण और उनके पदार्थों को छीन कर हरने वाला, (विभजन्) विभाग अर्थात् श्रेष्ठ और दुष्ट पुरुषों को अलग-अलग करता हुआ, उनमें से (अयज्वन:) जो यज्ञ नहीं करते उनके (वेद:) धन को (एति) छीन लेता, उस (भूरिकर्मणे) भारी काम के करने वाले (वृषभाय) श्रेष्ठ (वृष्णे) सुख पहुँचाने वाले (सत्यशुष्माय) नित्य बली सेनापति के लिये जैसे (सोमम्) ऐश्वर्य्य समूह को (सुनवाम) उत्पन्न करें, वैसे तुम भी करो।
भावार्थ — इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो ऐसा ढीठ है कि जैसे डाकू आदि होते है और साहस करता हुआ चोरों के धन आदि पदार्थों को हर सज्जनों का आदर कर पुरुषार्थी बलवान् उत्तम से उत्तम हो, उसी को सेनापति करें।
हम यहाँ कहना चाहेंगे कि सर्वप्रथम तो आप यज्ञ शब्द का अर्थ समझ लेवें, जिसे हम पूूर्व में समझा चुके हैं। यहाँ कहा गया है कि जैसे कोई चोर बलपूर्वक किसी पथिक का धन लूट लेता है, वैसे ही वीर पुरुष को चाहिए कि वह चोर-डाकूओं के धन को बलपूर्वक छीन लेवे और जो परोपकारी सज्जन लोग हैं, उनका आदर करे और ऐसा वीर पुरुष ही सेनापति होवे। वर्तमान में भी तो न्यायप्रिय शासक चोरों के द्वारा चोरी किये गये धन का हरण करके जिसका धन चोरी हुआ है, उसको देते ही हैं अथवा वह धन राजकोष में उपयोग होता है और ऐसा अवश्य ही होना चाहिए। जब तक चोरों के धन को छीना नहीं जाएगा, तब तक चोरी-डाके जैसे अपराध बन्द भी नहीं होंगे। यहाँ यज्ञकर्म न करने वाले एवं यज्ञविरोधी से धन छीनने की बात कही गयी है, वह उचित ही है, क्योंकि जो परोपकार नहीं करता अथवा राज्य को कर नहीं देता, वह चोर ही है, तब उसका धन राजा वा सेनापति छीन ले, तो यह उचित ही है, जिससे उस धन का राष्ट्रहित में उपयोग हो सके।
हाँ, कोई चोर व्यक्ति अवश्य ही वेद के इस आदेश का विरोध करेगा। अब आपको सोचना है कि आपको क्या करना चाहिए?