आक्षेप संख्या—8
(Beheading the Demons – Non Hindus)
Atharva Veda 1.7.7 O Agni, bring thou hither ward the Yatudhanas bound and chained. And afterward let Indra tear their heads off with his thunder-bolt.
त्वमग्ने यातुधानानुपबद्धाँ इहा वह। अथैषामिन्द्रो वज्रेणापि शीर्षाणि वृश्चतु॥
उत्पन्न हुआ है। हे अग्ने। तू हमारा दूत बनकर यातुधानों को विलाप करा॥ हे अग्ने। तू [यातुधानान्] दुष्टों को [उपवद्धान्] बांधे हुए अर्थात् बांधकर [इह आ वह] यहा ले आ। [अथ] और इन्द्र अपने वज्र से [एषा शीर्षाणि] इनके मस्तक [वृश्वतु] काट डाले।
आक्षेप का उत्तर—
आपने आरोप लगाया है कि हिन्दू ग्रन्थों में गैर हिन्दुओं को डेमन अर्थात् राक्षस बताया है, यह आपने कहाँ से जाना? वेद अथवा ऋषियों के किसी ग्रन्थ में हिन्दू शब्द ही नहीं है, न हिन्दू कोई धर्म है, बल्कि वैदिक सनातन धर्म ही एकमात्र ब्रह्माण्डवासियों का धर्म है। प्राचीन आर्ष ग्रन्थों में मानवाकृति वाले प्राणी का कई वर्गों में विभाजन किया है, जैसे मनुष्य, देव, गन्धर्व, राक्षस, असुर, किन्नर, नाग, गृध्र, पक्षी, ऋक्ष, वानर आदि आर्य भी कोई जाति नहीं रही, बल्कि ‘आर्य’ शब्द गुणवाचक है और ‘दस्यु’ शब्द भी गुणवाचक है। वैदिक आचरण वाले व्यक्ति को आर्य कहते थे। इस देश में ऐसे ही धार्मात्मा मनुष्यों का वास होने से इस देश का नाम आर्यावर्त्त हो गया। कालान्तर में इस देश के निवासी आर्य कहलाने लगे, भले ही वे गुणों से आर्य न हों। इन्हें ही विदेशी हिन्दू कहने लगे, जो एक षड्यन्त्र का भाग था। दुर्भाग्यवश आज कोई राष्ट्रवादी कहाने वाला इस बात को समझने को तैयार नहीं है।
रावण को उसकी पत्नि आर्यपुत्र ही कहती थी। वानरवंशी महाराज बालि की धर्मपत्नी महारानी तारा भी अपने पति को आर्यपुत्र ही कहती थी। गृध्रवंशी क्षत्रिय जटायु, जो महाराज दशरथ के मित्र थे, को देवी सीता ‘आर्य’ शब्द से ही सम्बोधित कर रही थी। वस्तुत: ईश्वरीय ज्ञान वेद के अनुसार जीवन जीने वाले श्रेष्ठ पुरुष आर्य कहलाते थे, जो किसी भी वंश के हो सकते थे। इन वंशों में परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध भी होते थे। यह तो हुई इतिहास की बात, जहाँ तक वेद का प्रश्न है, तो वेद में सभी पद यौगिक हैं। इसलिए उसमें किसी व्यक्ति वा वर्ग, वंश आदि का उल्लेख नहीं है, जो इस यथार्थ को नहीं समझते, उन्हें वेद पर लेखनी नहीं चलानी चाहिए।
यहाँ दुष्ट व्यक्ति को यातुधान कहा गया है। यजुर्वेद ३४.२६ के भाष्य में ऋषि दयानन्द ने पर पदार्थ को अन्यापूर्वक लेने वाले को यातुधान कहा है। यजुर्वेद १५.१६ के भाष्य में परपीड़क अर्थात् दूसरे को पीड़ा देने वाले को यातुधान कहा है। प्राचीन ऋषियोंं का कथन है— यातुधान हेति: (मै.२.८.१०) अर्थात् हनन करने वाले हत्यारे को यातुधान कहते हैं। अब कोई वेदविरोधी यह बताये कि लुटेरे और हत्यारे को यदि बन्दी बनाकर न्यायालय में प्रस्तुत किया जाये और राजा अथवा न्यायाधीश उसे मृत्यु दण्ड दे, तब इसमें आपको क्या आपत्ति अनुभव हो रही है? यहाँ यातुधान किसी देशविशेष के निवासी को नहीं‚ बल्कि दुष्ट व्यक्ति को ही यातुधान कहा है। इसलिए वेद सर्वहित के लिए दुष्ट को दण्ड देने का आदेश देता है, न कि किसी निरपराध को सताने का । इस मन्त्र में ‘अग्नि’ और ‘इन्द्र’ दोनों ही शब्द न्यायाधीश अथवा राजा के लिए प्रयुक्त हैं। इन दोनों का कार्य बहुत संवेदनशील और जटिल होता है। जब ये किसी अपराधी को दण्ड, विशेषकर मृत्युदण्ड देते हैं, तब उस अपराधी के परिजन विलाप करते ही हैं, क्योंकि महात्मा विभीषण जैसे पवित्रात्मा और निष्पक्ष व्यक्ति विरले ही होते हैं, जो अधर्मी और अहंकारी राजा और अपने भाई रावण को त्यागकर धर्म की प्रतिमूर्ति मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का साथ देते हैं और लंका की प्रजा की रक्षा करते हैं। दुर्भाग्य से प्रबुद्ध कहे जाने वाले, परन्तु नितान्त नासमझ लोगों ने महात्मा विभीषण को घर का भेदी बताकर ‘घर का भेदी लंका ढहाये’ की कहावत ही बना ली, जो आज लोकप्रसिद्ध है। ऐसे नासमझ समाज से यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह वेद की न्याय व्यवस्था को समझ सके। किसी भी पाठक को चाहिए कि वह किसी भी ग्रन्थ को पढ़ते समय लेखक अथवा उसके अनुवादक वा भाष्यकार के आशय को समझने का प्रयास करे, उसके पश्चात् ही लेखनी उठाने का साहस करे।