#15 आक्षेप संख्या—10 का उत्तर

आक्षेप संख्या—10

Rig Veda 6.26.3 Thou didst impel the sage to win the daylight, didst ruin Susna for the pious Kutsa. The invulnerable demon’s head thou clavest when thou wouldst win the praise of Atithigva.

हे इन्द्र! अन्न-लाभ करने के लिए तुम भार्गव ऋषि को प्रेरित करो। हव्यदाता कुत्स के लिए तुमने शुष्णासुर का छेदन किया था। तुमने अतिथिग्व (दिवोदास) को सुखी करने के लिए शम्बरासुर का शिरच्छेदन किया था। वह अपने को मर्महीन (दुर्भेद्य) समझता था।

Rig Veda 8.14.13 With waters’ foam thou torest off, Indra, the head of Namuci, Subduing all contending hosts.

आक्षेप का उत्तर—

यहाँ आपने फिर चालबाजी कर दी, क्योंकि यहाँ भी अनुवादक और भाष्यकार का नाम नहीं दिया। ये अनुवादक और भाष्यकार दोनों ही नितान्त अनाड़ी हैं। जो शब्द वेद में हैं ही नहीं, उन्हें भी असुर वा ऋषि बनाकर यहाँ लाकर खड़ा कर दिया। इस मन्त्र में कहीं भार्गव ऋषि का नाम नहीं है, परन्तु यहाँ उन्हें अन्नलाभ के लिये प्रेरित करने की बात लिख दी। शुष्णम् का शुष्णासुर बना दिया और शम्बरासुर कहीं से लाकर खड़ा कर दिया और इन्द्र द्वारा उसका सिर कटवा दिया। जहाँ ऐसे मूढ़मति भाष्यकार होंगे, वहाँ सुलेमान रजवी तो वेद का उपहास करने आ ही जायेगा। यहाँ सुलेमान रजवी को ऋषि दयानन्द का भाष्य दिखाई नहीं दिया। हम यहाँ ऋषि दयानन्द का भाष्य उद्धृत करते हैं—

पदार्थ: — (त्वम्) (कविम्) विद्वांसम् (चोदय:) प्रेरय (अर्कसातौ) अन्नादिविभागे (त्वम्) (कुत्साय) वज्राय (शुष्णम्) बलम् (दाशुषे) दात्रे (वर्क्) छिनत्सि (त्वम्) (शिर:) (अमर्मण:) अविद्यमानानि मर्माणि यस्मिँस्तस्य (परा) (अहन्) दूरीकुर्या: (अतिथिग्वाय) योऽतिथीनागच्छति तस्मै (शंस्यम्) प्रशंसनीयं कर्म (करिष्यन्)।

भावार्थ: — राजा विद्याविनयादिशुभगुणान् राजकार्येषु योजयेत्, उन्नतिञ्च करिष्यन् विद्यादीनां दाता भूत्वा प्रशंसां प्राप्नुयात्॥

पदार्थ — हे तेजस्विराजन्! (त्वम्) आप (अर्कसातौ) अन्न आदि के विभाग में (कविम्) विद्वान् की (चोदय:) प्रेरणा करिये और (त्वम्) आप (कुत्साय) वज्र के लिये और (दाशुषे) दान करने वाले के लिये (शुष्णम्) बल को (वर्क्) काटते हो और (त्वम्) आप (अमर्मण:) नहीं विद्यमान मर्म जिसमें उसके (शिर:) शिर को (परा, अहन्) दूर करिये और (अतिथिग्वाय) अतिथियों को प्राप्त होने वाले के लिये (शंस्यम्) प्रशंसा करने योग्य कर्म को (करिष्यन्) करते हुए वर्तमान हो इससे आप सत्कार करने योग्य हो।

भावार्थ — राजा विद्या और विनय आदि श्रेष्ठ गुणों से युक्त जनों को राजकार्यों में युक्त करे और उन्नति को करता हुआ विद्या आदि का दाता होकर प्रशंसा को प्राप्त होवे।

यह भाष्य सामान्य जन के लिए निश्चित ही दुर्बोध्य है। समयाभाव के कारण ऋषि दयानन्द के भाष्य में कहीं-कहीं क्लिष्टता व अस्पष्टता आ गयी है। यहाँ हम इसे स्पष्ट व सरल करने का प्रयास करते हैं—

यहाँ प्रतापी राजा से प्रार्थना की गयी है कि वह अपने विद्वान् मन्त्रियों को ऐसी प्रेरणा करे कि वे सम्पूर्ण राष्ट्र के नागरिकों में अन्न व धन आदि का समुचित वितरण करें। कभी ऐसा न होने पावे कि कुछ लोग अत्यन्त सम्पन्न हो जावें और कुछ लोग अति निर्धनता भरे क्लेश को भोगने को विवश हो जावें। ऐसा करना स्वयं को अन्यायकारी के रूप में सिद्ध करना है। आज हमारे राष्ट्र वा विश्व में गरीबी एवं अमीरी के बीच जो अत्यन्त दूरी है, वह राष्ट्रों व विश्व के नीतिनिर्धारकों के अन्यायकारी अथवा अज्ञानी होने का जीवन्त प्रमाण है।

वह राजा दूसरा कार्य यह करे कि दुष्टों, जो दूसरों के धन आदि का शोषण करते हैं, चोरी, लूट व घूसखोरी करते हैं अथवा उन्हें नाना प्रकार के झूठ, छल व कपट से लूटते हैं, को दण्ड देने के लिए उन अपराधियों के शुष्ण अर्थात् शोषक बल को नष्ट कर दे। वर्तमान में बड़े-बड़े नेता, पूँजीपति, राज कर्मचारी, अधिकारी वा व्यापारी नाना हथकण्डे अपनाकर प्रजा का शोषण करते हैं, उन हथकण्डों को जड़ मूल से काट देवे, जिससे वे फिर कभी शोषण न कर सकें। जो धनबल के कारण शोषण करते हैं, राजा उनकी सम्पत्ति का अधिग्रहण करके शोषितों के हित में प्रयोग करे। जो जनबल के कारण लूटते हैं, उनके जनबल को उनसे दूर करने का उपाय करे, उनके अनुयायियों में उनके अपराध को प्रचारित करके उसे अलग-थलग कर दे। जो कोई अपने पद के कारण नागरिकों का शोषण करता हो, तो उसे तत्काल पदच्युत कर दे। यदि कोई शारीरिक बल वा अस्त्र-शस्त्रादि के बल पर शोषण करता है, तो उके अंगभंग करके उससे शस्त्रादि छीन ले। यहाँ ‘शुष्णम् वर्क्’ अर्थात् बल को काटने का यह लोकोपकारक अर्थ है। कहाँ से इसे शुष्णासुर बना डाला?

यहाँ दान करने वाले के लिए भी शोषण बल को काटने की बात कही गई है। इसका अर्थ है कि कोई दुष्ट व्यक्ति किसी दाता अर्थात् परोपकारी पुरुष का ही शोषण करने लगे, उसे परोपकारी कार्यों में दान न देने दे अथवा स्वयं ही उसका धन लूट ले, उसकी रक्षा के लिए भी इसी प्रकार शोषणकर्त्ता अपराधियों के बल को पूर्वोक्तानुसार नष्ट करने की बात की गयी है। इससे परोपकारी महानुभाव निर्विघ्न रूप से समाज व राष्ट्र की सेवा कर सकें।

आगे कहा है कि जिनके मर्म स्थान न हों, उनका शिर काट कर फेंक दे। इसका भाव यह है जिस प्रकार शरीर में कुछ मर्म स्थान होते हैं, जिन पर चोट लगने से व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है। उसी प्रकार शोषणकर्त्ताओं को यदि पूर्वोक्त उपायों से दुर्बल न किया जा सके, तो ऐसे शोषकों का शिरोच्छेदन करना ही एकमात्र विकल्प रह जाता है।

आज अपने देश में कोई दण्ड व्यवस्था न होने से भारी अराजकता मची हुई है, जिससे करोड़ों नागरिक दु:खी हैं और कुछ लोग सत्ता-धन आदि के मद में उनका भरपूर शोषण करके निरन्तर अधिकाधिक धनसम्पन्न हो रहे हैं। यह स्थिति समूची मानवता के लिए गम्भीर संकट उत्पन्न कर रही है।

यहाँ अनाड़ी भाष्यकार ‘अतिथिग्व’ पद से दिवोदास नामक किसी व्यक्ति का ग्रहण कर रहे हैं। इस पर क्या टिप्पणी करें? यह पद ‘अतिथि + गम्लृगतौ + ड्व: प्रत्यय’ से व्युत्पन्न है। [ देखें- वैदिक कोष -आचार्य राजवीर (शास्त्री)] अब कोई अतिथिग्व से दिवोदास बनाये, उसे क्या कहें? यहाँ ऋषि दयानन्द ने जो अर्थ किया है, वही सत्य है। ध्यान रहे कि निरन्तर सत्योपदेश करने वाले भ्रमणशील आप्त विद्वान् पुरुष को अतिथि कहते हैं। इस विषय महर्षि ऐतरेय महीदास का में कथन है—

‘‘य: श्रेष्ठतामश्नुते स वा अतिथिर्भवति’’ (ऐ.आ.१.१.१.)

अर्थात् जो विद्या और श्रेष्ठ कर्मों के द्वारा श्रेष्ठता को प्राप्त होता है, उसे अतिथि कहते हैं। ऐसे अतिथि विद्वानों को प्राप्त होने वाले विद्या आदि धनों के लिए जो प्रशंसनीय व परोपकारी कार्य हैं, उन्हें राजा को भी करना चाहिए, तभी राजा सम्मान का अधिकारी होता है। इसका अर्थ यह है कि जैसे अतिथि वेदविद्या एवं श्रेष्ठ परोपकारक कर्मों के द्वारा अतिथि पद को प्राप्त करता है, वैसे राजा को भी बनना चाहिए। मूर्ख, छली-कपटी वा प्रमादी व्यक्ति को राजा कभी न बनावें।

इस मन्त्र का देवता इन्द्र होने से यह प्रकट होता है कि अपने विद्या, बल, तेज आदि से ऐश्वर्य को प्राप्त जितेन्द्रियतादि उत्तमोत्तम गुणों से युक्त व्यक्ति ही राजा बने और ऐसा इन्द्ररूप राजा ही इस प्रकार के कर्म करने में समर्थ हो सकता है, अन्य नहीं।

अब वेदविरोधी विचारें कि इस मन्त्र का कैसा अनर्थ करके वेद पर प्रहार करने का पाप कर रहे हैं। इस एक मन्त्र को ही किसी राष्ट्र का प्रमुख अपने आचरण में ले आवे, तो उस राष्ट्र का कायापलट हो सकता है।

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