‘अपध्नन्तो अराव्ण:’ मन्त्र का वैज्ञानिक अर्थ

 आक्षेप संख्या १ (शेष)

अपध्नन्तो अराव्ण: पवमाना: स्वर्दृश:। योनावृतस्य सीदत॥ (ऋ.९.१३.९)

इस मन्त्र का आपने निम्नानुसार भाष्य उद्धृत किया है—

“May you (O love divine), the beholder of the path of enlightenment, purifying our mind and destroying the infidels who refuse to offer worship, come and stay in the prime position of the eternal sacrifice.” -Tr. Satya Prakash Saraswati

अर्थात् आप (हे ईश्वरीय प्रेम), आत्मज्ञान के मार्ग के द्रष्टा, हमारे मन को शुद्ध करने वाले और पूजा करने से इनकार करने वाले नास्तिकों को नष्ट करने वाले, आओ और शाश्वत यज्ञ के प्रधान पद पर रहो।”

(अराव्ण:) दुष्टों को (अपध्नन्त:) दारुण दण्ड देने वाला (पवमाना:) सत्कर्मियों को पवित्र करने वाला (स्वर्दृश:) सर्वद्रष्टा परमात्मा (ऋतस्य) सत्कर्मरूपी यज्ञ की (योनौ) वेदी में (सीदत) आकर विराजमान हो ॥ ९॥

यहाँ अंंग्रेजी अनुवाद को स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती का बताया गया है। निश्चित ही यह अनुवाद उचित नहीं है, परन्तु हिन्दी अनुवाद किसका है, यह आपने नहीं दर्शाया है। इसे हम बता रहे हैं कि यह आर्यविद्वान् आचार्य बैद्यनाथ शास्त्री के द्वारा किया हुआ अनुवाद है। इस हिन्दी अनुवाद पर आपको क्या आपत्ति है? अथवा संसार का कोई सभ्य अथवा न्यायप्रिय व्यक्ति इस पर क्या आपत्ति कर सकता है? क्या दुष्ट को दण्ड देना अपराध है? यदि ऐसा है, तो संसार के सभी न्यायालय और पुलिस व्यवस्था व सेना को बन्द वा समाप्त कर देनी चाहिए। मैं इस मन्त्र पर आपके आक्षेप को समझ नहीं पा रहा। क्या आप दुष्ट को पुरस्कृत और सत्कर्म करने वाले को दण्डित वा अपवित्र करना चाहते हैं? जैसाकि संसार में खूनी मजहबों का इतिहास व चरित्र रहा है। यद्यपि यह हिन्दी भाष्य गलत नहीं है, परन्तु यह कथमपि पर्याप्त भी नहीं है। अब हम इस मन्त्र पर अपने ढंग से विचार करते हैं—

इस मन्त्र का ऋषि असित काश्यप देवल है। इसका अर्थ यह है कि यह मन्त्ररूपी छन्द रश्मि कूर्म प्राण राश्मियों से उत्पन्न ऐसी सूक्ष्म प्राण राश्मियों, जो स्वयं किसी के बंधन में नहीं आतीं, परन्तु सूक्ष्म कणों और रश्मियों को अपने साथ बाँधने में समर्थ होती हैं, से होती है। इसका देवता पवमान सोम और छन्द यवमध्या गायत्री है। इस कारण इसके दैवत और छान्दस प्रभाव से इस सृष्टि में विद्यमान सोम पदार्थ श्वेतवर्णीय तेज से युक्त होने लगता है। इसके साथ ही इस सृष्टि में विद्युत् चुम्बकीय बल भी समृद्ध होने लगता है। अब हम इसका तीन प्रकार का भाष्य करते हैं—

आधिदैविक भाष्य १— (पवमाना:, स्वर्दृश:) सूर्य के समान तेजस्वी और शुद्ध सोम पदार्थ (अराव्ण:, अपघ्नन्त:) [अराव्ण:=रा दाने (अदा.) धातोर्वनिप्। नञ्समास:] संयोग-वियोग की प्रक्रिया में बाधा डालने वाले अथवा उस प्रक्रिया में भाग लेने में असमर्थ पदार्थों को नष्ट करता अथवा उन्हें हटाता हुआ (ऋतस्य, योनौ, सीदत) [ऋतम्=ऋतमित्येष (सूर्य:) वै सत्यम् (ऐ.४.२०), ऋतमेवपरमेष्ठी (तै.ब्रा.१.५.५.१), अग्निर्वा ऋतम् (तै.ब्रा.२.१.११.१)] सूर्यलोक के सर्वोत्तम आग्नेय क्षेत्र अर्थात् केन्द्रीय भाग अथवा सम्पूर्ण सूर्यलोक के उत्पत्ति और निवासस्थान में विद्यमाने रहता है।

भावार्थ— सूर्यलोक की उत्पत्ति होने से पहले विशाल खगोलीय मेघों के अन्दर सोम रश्मियाँ शुद्ध रूप में व्याप्त होती हैं। जब वे सोम रश्मियाँ तप्त होने लगती हैं, तब वे ऐसे पदार्थ जो, स्वयं सूर्यलोक के निर्माण की प्रक्रिया में भाग लेने के लिए संयोग-वियोग आदि प्रक्रियाओं में भाग लेने योग्य नहीं होते हैं अथवा जो संयोग-वियोग प्रक्रियाओं में बाधा डाल रहे होते हैं, उन्हें नष्ट वा दूर करती हैं। ऐसा करते हुए वे सोम रश्मियाँ सम्पूर्ण खगोलीय मेघ में व्याप्त हो जाती हैं। इसी प्रकार सोम प्रधान विद्युत् ऋणावेशित कण भी सम्पूर्ण खगोलीय मेघ और कालान्तर में सूर्यलोक में व्याप्त हो जाते हैं।

आधिदैविक भाष्य २— (पवमाना:, स्वर्दृश:) विद्युत् के समान गत्यादि व्यवहार करने वाले अर्थात् विद्युत् की भाँति शुद्ध मार्गों पर गमन करते हुए सूक्ष्म कण वा विकिरण (अपघ्रन्त:, अराव्ण:) मार्ग में आने वाले ऐसे कण, जो संयोग-वियोग क्रियाओं में भाग नहीं लेते हैं अथवा बाधा डालते हैं, को दूर हटाते हुए चलते हैं। (ऋतस्य, योनौ, सीदत) [ऋतम्= अग्निर्वा ऋतम् (तै.ब्रा. २.१.११.१)] वे कण अग्नि के कारणरूप प्राण तत्त्व में निरन्तर निवास करते हैं अर्थात् वे प्राणों में ही निवास और प्राणों में ही प्राणों के द्वारा गमन करते हैं।

भावार्थ— इस ब्रह्माण्ड में जो कण लगभग प्रकाश के वेग से गमन करते हैं, वे कण अथवा विकिरण मार्ग में बाधक पदार्थों को परे हटाते हुए अपने मार्ग को निर्बाध बनाते हुए चलते हैं। इसका अर्थ यह है कि वे विभिन्न आयन्स वा इलेक्ट्रॉन्स को दूर नहीं हटाते, बल्कि उनके द्वारा उत्सर्जन और अवशोषण की क्रियाएँ करते हुए निरापद रूप से निरन्तर गमन करते रहते हैं। इन क्रियाओं के कारण उनकी वास्तविक शुद्ध गति में कुछ न्यूनता भी आती है। यदि अवशोषण व उत्सर्जक पदार्थ अधिक मात्रा में विद्यमान हो, तो उसी अनुपात में गमन करने वाले कणों की परिणामी गति कम होती चली जाएगी। वर्तमान विज्ञान द्वारा परिभाषित डार्क मैटर इन सूक्ष्म कणों वा विकिरणों के साथ कोई अन्योन्य क्रिया नहीं करता, इसलिए उस पदार्थ को वे कण वा विकिरण दूर हटाते हुए निर्बाध गमन करते रहते हैं। ये कण वा विकिरण सूर्यादि तारों, अन्य आकाशीय लोकों, प्राणियों केे शरीरों वा वनस्पतियों अथवा खुले अन्तरिक्ष में सर्वत्र यही व्यवहार दर्शाते हैं।

ध्यातव्य— हमने यहाँ दो प्रकार के आधिदैविक भाष्य प्रस्तुत किये हैं, इसी प्रकार ‘पवमान स्वर्दृक्’ पदों से तारे, ग्रहादि लोकों का अर्थ ग्रहण करके अन्य भाष्य भी किये जा सकते हैं।

क्रमशः…

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