किसे अपना शत्रु मानें?

 आक्षेप संख्या—३

Atharva Veda 5.21.3 ‘Let this war drum made of wood, muffled with leather straps, dear to all the persons of human race and bedewed with ghee, speak terror to our foemen.” Tr. Vaidyanath Shastri

वानस्पत्य: संभृत उस्रियाभिर्विश्वगोत्र्य:। प्रत्रासममित्रेभ्यो वदाज्येनाभिघारित:॥

भाष्य— हे दुन्दुभे! नक्कारे! तू जिस प्रकार (वानस्पत्य:) लकड़ी का बना हुआ होकर भी (उस्रियाभि: संभृत:) चाम के तस्मों से जकड़ा हुआ (विश्वगोत्र्य:) समस्त जन का बन्धु है। वह (अमित्रेभ्य:) शत्रुओं के लिये। (आज्येन अभि-घारित:) घृत द्वारा अभिषिक्त होकर (प्रत्रासं वद) भय और आतंक बतला।

आक्षेप का उत्तर—

यह मन्त्र इस प्रकार है—

वानस्पत्य: संभृत उस्रियाभिर्विश्वगोत्र्य:। प्रत्रासममित्रेभ्यो वदाज्येनाभिघारित:॥ (अथर्व.५.२१.३)

इस मन्त्र से उपर्युक्त भाष्यकारों ने शत्रुओं को आतंकित करने का वर्णन किया है। यद्यपि यह भाष्य नहीं है, अपितु मात्र सरल अनुवाद है, जो मन्त्र के अभिप्राय को उचित रीति से दर्शाने में सक्षम नहीं है। हम पूर्ववत् यहाँ फिर कहना चाहेंगे कि वेद का अनुवाद नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि समुचित भाष्य किया जाना चाहिए। पुनरपि इसमें आपको क्या आपत्ति प्रतीत होती है? जब दो सेनाओं में युद्ध होता है, तब शत्रु को आतंकित करने की बात तो क्या, उसे तो नष्ट ही किया जाता है। इसी का नाम युद्ध है, जो धर्मात्माओं और पापियों के बीच सदा से चलता आया है। यहाँ महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि किसे अपना शत्रु मानना चाहिए? महर्षि दयानन्द ने स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश में मनुष्यत्व का लक्षण बताते हुए लिखा है—

मनुष्य उसी को कहना कि मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दु:ख और हानि-लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं— कि चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यों न हों— उनकी रक्षा उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती सनाथ महाबलवान् और गुणवान् भी हो, तथापि उसका नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहाँ तक हो सके, वहाँ तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उसको कितना ही दारुण दु:ख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक् कभी न होवें।

अब कोई बताये कि मनुष्य की इससे अधिक न्यायसंगत, तर्कसंगत एवं कल्याणकारिणी परिभाषा और क्या हो सकती है? जो व्यक्ति अपने बल के अहंकार में जनसाधारण अथवा विभिन्न पशु-पक्षियों को दु:ख देता है, उसको कोई भी सज्जन व्यक्ति अपना शत्रु क्यों न समझे? ऐसे दुष्ट व्यक्ति ही सम्पूर्ण विश्व में अराजकता फैलाते हैं। इनको जितना अधिक सहन किया जायेगा अथवा इनके प्रति जितना अधिक तटस्थ रहा जायेगा, उतनी ही अधिक इस समाज, राष्ट्र वा विश्व में हिंसा, अराजकता और अशान्ति फैलेगी। इस कारण ऐसे बर्बर लोगों को शान्ति और मानवता की स्थापना करने के लिए अवश्य ही नष्ट कर देना चाहिए। तब यदि ऐसे शत्रुओं को दण्ड देने की प्रार्थना वेद में हो, तो उसकी निन्दा कोई अराजक और उपद्रवी तत्त्व ही कर सकता है। अब हम इस मन्त्र का अपना अर्थ प्रस्तुत करते हैं।

इसका भाष्य इस प्रकार है—

आधिदैविक भाष्य— यह पाठकों के लिए पुस्तक रूप में ही भविष्य में उपलब्ध हो सकेगा।

आधिभौतिक भाष्य— (वानस्पत्य:) [वनम् = रश्मिनाम (निघं.१.५), यह पद ‘वन शब्दे’, ‘वन संभक्तौ’ एवं ‘वनु याचने’ धातुओं से व्युत्पन्न है। वनस्पतिरेव वानस्पत्य:] प्रजा द्वारा वाञ्छित अन्न-धनादि पदार्थों का राष्ट्र में समुचित वितरण करने वाला, विद्या के प्रकाश से प्रकाशित सत्योपदेष्टा राजा (विश्वगोत्र्य:) राष्ट्र की प्रजा के सभी कुलों में अपने हितकारी कार्यों द्वारा सदैव विद्यमान अर्थात् समस्त प्रजा का हितचिन्तक (उस्रियाभि:, संभृत:) गौ आदि उपकारी पशुओं के द्वारा तथा नाना प्रकार की निरापद किरणों वा ऊर्जा के द्वारा राष्ट्र को सम्यक् रूप से धारण करने वाला (अमित्रेभ्य:, प्रत्रासम्, वद) राष्ट्रविरोधी तत्त्वों और समाज कण्टकों के विरुद्ध कठोर दण्ड का आदेश देवे। (आज्येन, अभिधारित:) जैसे घृत से सिंचित समिधाएँ जलकर नष्ट हो जाती है, वैसे ही तेजस्वी राजा हिंसक और क्रूर अपराधियों को नष्ट कर दे।

भावार्थ— वेदविद्या का महान् ज्ञाता राजा अपनी प्रजा के लिए अन्न-धन आदि पदार्थों के न्याय-संगत वितरण की व्यवस्था करता है। सुख चाहने वाला कोई भी राष्ट्र गौ आदि उपकारी पशुओं को अपना आर्थिक आधार बनाता है और इसी क्रम में सबसे निरापद और शुद्ध पेशीय ऊर्जा का उपयोग करता है। इसके अतिरिक्त उस ऊर्जा का ही उपयोग करता है, जो पूर्णत: निरापद हो। राजा अपनी प्रजा के लिए माता-पिता के समान हितकारी होना चाहिए, जो प्रजा के लिए भय का कारण बने, उसे राजा नष्ट कर देवे। वह राजा पर्यावरण शोधनार्थ गोघृत आदि उत्तम पदार्थों से नित्य यज्ञ भी करने और कराने वाला हो एवं जिस प्रकार घृत की आहुति से अग्नि तेजस्वी होने लगता है, उसी प्रकार राजा भी ब्रह्मचर्यादि व्रतों और योगाभ्यास आदि से तेजयुक्त होवे।

आध्यात्मिक भाष्य— (वानस्पत्य:) प्राणविद्या का ज्ञाता और प्राणों को वश में रखने वाला योगाभ्यासी (उस्रियाभि:, संभृत:) वेद की ऋचाओं के द्वारा स्वयं को सम्यक् रूप से पुष्ट करता है और वह निरन्तर वेद की ऋचाओं में ही स्थित होता है। (विश्वगोत्र्य:) वह किसी कुल वा वंश विशेष का न होकर प्राणिमात्र के हित में ही लगा रहता है। (अमित्रेभ्य:, प्रत्रासम्, वद) वह योगी योगसाधना में बाधक चित्त वृत्तियों को अपनी अन्तश्चेतना द्वारा प्रतिबन्धित रहने का आदेश दे अर्थात् मन में आने वाले विकारों को बलपूर्वक प्रतिबन्धित करने का प्रयास करे। (आज्येन, अभिधारित:) [आज्यम् = प्राणो वा आज्यम् (तै.३.८.१५.२३), यज्ञो वा आज्यम् (तै.३.३.४.१)] ऐसा योगी अपने प्राणायामादि तपों के द्वारा प्राण बल को बढ़ाता हुआ परब्रह्म परमात्मा के साथ संगत होने का प्रयत्न करते हुए परहित की भावना से स्वयं को निरन्तर सिंचित करता रहे अथवा वह यज्ञस्वरूप परब्रह्म परमात्मा के प्रति प्रीति भावना से स्वयं को निरन्तर सिंचित करता रहे।

भावार्थ— प्राण को वशीभूत करने वाला योगी सदैव वेद की ऋचाओं में रमण करता है। वह प्राणिमात्र के आत्मा निरन्तर ईश्वर का वास अनुभव करता हुआ सदैव उनका हितचिंतन करता है। उसके मन में जब भी कोई विकार उत्पन्न होने वाला होता है, तब वह अपने मन को आदेश देकर बुरे विचारों को बाहर ही धकेल देता है। योगी का आत्मबल बहुत प्रबल होता है, क्योंकि वह सदैव ही स्वयं को ईश्वराधीन अनुभव करता है।

इन भाष्यों को पढक़र कोई भी वेदविरोधी यह बताये कि उसको इन भाष्यों पर क्या आपत्ति है?

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