आक्षेप संख्या १ (शेष)
दण्ड: शास्ति प्रजा: सर्वा:, दण्ड एवाभिरक्षति। दण्ड: सुप्तेषु जागर्ति, दण्डं धर्मं विदुर्बुधा:॥ (मनु.)
अर्थात् उचित दण्ड ही प्रजा पर शासन करता है और दण्ड ही प्रजा की रक्षा करता है। दण्ड कभी शिथिल नहीं होता, इसलिए विद्वान् लोग दण्ड को ही धर्म कहते हैं। कंजूस को दण्ड देने के विषय में महात्मा विदुर ने कहा है—
द्वावम्भसी निवेष्टव्यौ, गले बद्ध्वा दृढां शिलाम्। धनवन्तमदातारं, दरिद्रं चातपस्विनम्॥ (विदुरनीति.१.६५)
अर्थात् धनवान् होते हुए भी परोपकार के कार्यों में दान न देने वाले और निर्धन होते हुए भी परिश्रम न करने तथा दु:ख सहना न चाहने वाले को गले में भारी पत्थर बाँधकर गहरे जलाशय में डुबो देना चाहिए। यहाँ सम्पूर्ण प्रजा के लिए भी सन्देश है कि धनी व्यक्ति धन को ईश्वर का प्रसाद समझकर त्यागपूर्वक ही उपयोग करे। वह निर्धन व दुर्बल की अवश्य सहायता करे। उधर निर्धन व्यक्ति धनी से ईष्र्या कदापि न करे, बल्कि स्वयं धर्मपूर्वक पुरुषार्थ करता रहे और दु:खों को भी सहन करने का अभ्यास करे। वह किसी के धन की चोरी करके धनी होने का प्रयास न करे अथवा बिना कर्म और योग्यता के धन, पद वा ऐश्वर्य पाने की इच्छा कभी नहीं करे।
आधिभौतिक भाष्य २— (पवमाना:, स्वर्दृश:) वेदविद्या के प्रकाश से प्रकाशमान ब्रह्मतेज से सम्पन्न पवित्रात्मा योगी आचार्य वा आचार्या अपने विद्यार्थियों को विद्याभ्यास कराते हुए (अपघ्नन्त:, अराव्ण:) विद्या को ग्रहण करने की इच्छा न करने वाले अथवा ग्रहण न करने वाले शिष्य और शिष्याओं की आवश्यक एवं उचित ताडऩा भी करें। (ऋतस्य, योनौ, सीदत) ऐसे आचार्य और आचार्या सम्पूर्ण सत्य विद्या के मूल कारण वेद अथवा परमात्मा में निरन्तर विराजमान रहते हैं।
भावार्थ— वेद ज्ञान से सम्पन्न निरन्तर योगनिष्ठ विद्वान् वा विदुषी को ही आचार्य वा आचार्या बनने का अधिकार होना चाहिए। उनको चाहिए कि वे अपने शिष्य वा शिष्याओं का प्रीतिपूर्वक और निष्कपट भाव से अध्यापन करें। जो विद्यार्थी विद्याग्रहण में प्रमाद करें और प्रीतिपूर्वक समझाने से भी न समझें, उन्हें समुचित दण्ड अवश्य दें। इस विषय में ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ-प्रकाश के द्वितीय समुल्लास में व्याकरण महाभाष्य का प्रमाण देते हुए लिखा है—
ध्यातव्य— इसी प्रकार माता-पिता आदि का ग्रहण करके भी अन्य प्रकार के आधिभौतिक भाष्य भी किये जा सकते हैं।
आध्यात्मिक भाष्य— (पवमाना:, स्वर्दृश:) यम-नियमों से पवित्र हुआ योगी ब्रह्म का साक्षात् करने वाला (अपघ्नन्त:, अराव्ण:) सभी प्रकार के दोषों का परित्याग न कर पाने की अनिष्ट चित्तवृत्तियों को दूर करता है अर्थात् वह योगी पुरुष सभी प्रकार की अनिष्ट वृत्तियों को शनै:-शनै: निरुद्ध करता चला जाता है। जब उसकी वृत्तियाँ निरुद्ध हो जाती हैं, तब (ऋतस्य, योनौ, सीदत) वह योगी पुरुष सब सत्य विद्याओं केमूल परब्रह्म परमात्मा में विराजमान हो जाता है अर्थात् वह ब्रह्मसाक्षात्कार कर लेता है।
भावार्थ— जब कोई योगाभ्यासी अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैसे यमों एवं शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान जैसे नियमों से स्वयं को पवित्र बना लेता है, तब उसकी चित्त की वृत्तियाँ निरुद्ध होने लगती हैं, जिससे वह ब्रह्मसाक्षात्कार करने में समर्थ हो जाता है।
यहाँ यह स्पष्ट होता है कि बिना यम-नियमों के पालन किये कोई भी व्यक्ति योगी नहीं बन सकता।
आक्षेप–१ का समाधान समाप्त