इस मन्त्र में उपदेश किया गया है कि वह परमपिता परमेश्वर अपनी व्यप्ति से जीवात्मा रूपी इन्द्र का मित्र है। हे मनुष्यो! उस सर्वव्यापक परमात्मा के कर्मों को देखो और समझने का प्रयास करो। मनुष्य इन कर्मों को देख व समझकर ही अपने व्रतों का पालन कर सकता है। यदि हम ज्ञान व भाषा की उत्पत्ति पर विचार करें, तो स्पष्ट होता है कि मनुष्येतर सभी प्राणी स्वाभाविक ज्ञान व भाषा से युक्त होते हैं। वे किसी अन्य प्राणी से न तो भाषा सीख सकते हैं और न किसी अपवाद को अतिरिक्त ज्ञान ही ले सकते हैं परन्तु मनुष्य स्वाभाविक ज्ञान व भाषा की दृष्टि से अन्य प्राणियों की अपेक्षा बहुत निर्धन है। हाँ, उसे परमात्मा ने बुद्धि अवश्य ही सबसे अधिक प्रदान की है, जिसके कारण वह सृष्टि में ईश्वरीय कर्मों एवं समाज के अपने से श्रेष्ठ जनों से जीवन भर ज्ञान लेता रहता है, नाना भाषाएं भी सीखता रहता है। जो मनुष्य इस सृष्टि को जितना अधिक गम्भीरता से समझेगा, अपने कर्म व व्यवहार का परिष्कार करने में उसे उतना ही अधिक सहयोग मिलेगा। कर्म व व्यवहार में श्रेष्ठता प्राप्त व्यक्ति अन्यों की अपेक्षा अपने व्यक्तित्व, परिवार, कार्यालय, उद्योग, कृषि, समाज, राष्ट्र वा विश्व का अधिक कुशलतापूर्वक प्रबन्धन कर सकेगा। ध्यान रहे परमात्मा से बड़ा कोई प्रबन्धक नहीं और सृष्टि से बड़ा कोई प्रबन्ध नहीं। इस कारण किसी भी क्षेत्र वा स्तर के प्रबन्धन के लिए हमें ईश्वरीय सर्वहितकारी प्रबन्धन से ही प्रेरणा लेनी चाहिये।
यहाँ हम इस प्रकरण में इस बात को सिद्ध मानकर चलते हैं कि संसार के वैज्ञानिक प्रतिभासम्पन्न जन सृष्टि के सर्वोच्च प्रबन्धक व निर्माता परमात्मा रूपी सर्वव्यापक चेतन तत्व की सत्ता के अस्तित्व पर किंचित् भी सन्देह नहीं करते हैं। इस सन्देह के निवारण करने के प्रयत्न में लेख का विषय ही परिवर्तित हो जायेगा।
आइए, हम इस सृष्टि पर विचार करते हैं-
यह सम्पूर्ण सृष्टि अनादि नहीं है, बल्कि इसका आदि भी है और अन्त भी। ‘सृष्टि’ शब्द का अर्थ भी यही है कि जो नाना सूक्ष्म पदार्थों के ज्ञानपूर्वक मेल से बने। इस सृष्टि का सूक्ष्म से सूक्ष्म कण, तरंग, आकाश की एक इकाई अथवा इन सबसे सूक्ष्म रश्मि आदि पदार्थ सभी कुछ इतने ज्ञानपूर्वक रचे हुए पदार्थ हैं कि करोड़ों वर्षों से पृथिवी का सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोत्कृष्ट बुद्धिमान् माना जाने वाला मनुष्य एक भी कण को भी पूर्णतः नहीं जान पाया है। जब किसी कण को ही पूर्णतः नहीं जान सकता, तो उससे सूक्ष्म क्वाण्टा, प्राण-छन्द रश्मियां, आकाश, दिशा, काल, असुर पदार्थ आदि तथा उससे बने स्थूल पदार्थों को वह पूर्णतः कभी नहीं जान सकता और अपूर्ण जानकारी के आधार पर उनका उपयोग करेगा, तो तात्कालिक लाभ के आभास के साथ-2 दूरगामी हानि अवश्य कर बैठेगा।
वर्तमान विज्ञान एवं तज्जनित प्रौद्योगिकी इसका ज्वलन्त उदाहरण है। आज सम्पूर्ण विश्व में जो भी वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकीय विकास वा प्रबन्धन देखा जा रहा है, वह मानव जाति ही नहीं, अपितु प्राणिमात्र को भी क्रूर विनाश के मार्ग पर ही सतत ले जा रहा है। भोजन, वस्त्र, भवन, मृदा, जल, वायु, आकाश के साथ-2 सम्पूर्ण मनस्तत्व तक विषाक्त वा विकृत हो चुका है, अर्थात् सम्पूर्ण पर्यावरण तन्त्र क्षत-विक्षत हो चुका है। इस कारण नाना प्रकार के शारीरिक, मानसिक व आत्मिक रोग निरन्तर उत्पन्न होते जा रहे हैं। दुःख, अशान्ति, हिंसा, रोग, शोक, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, काम, क्रोध आदि का ताण्डव सम्पूर्ण विश्व से मानवता को निगलता जा रहा है। ऐसे दुष्काल में जो समाजवादी वा मानवतावादी ध्वजवाहक दिखाई दे रहे हैं, वे भी वस्तुतः समाज व मानवता को खण्ड-2 ही करते दिखाई दे रहे हैं, भले ही ऐसा अज्ञानतावश हो रहा हो। यह अज्ञानता मूलतः सृष्टि-संचालक एवं स्वयं जीवात्मा के सम्बंध में ही नहीं, अपितु सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ के विषय में भी है। हम विद्युत् को अज्ञानता में छूएं अथवा जानकर, वह हमें मारेगी ही, इस कारण अज्ञानता का बहाना हमें दुःख से नहीं बचा सकता, इसी कारण संसार की सभी कथित विधायें चाहे वह विज्ञान हो, प्रोद्योगिकी हो, व्यापार प्रबन्धन, चिकित्सा, कृषि, उद्योग, सामाजिक वा राजनैतिक अध्ययन व प्रबन्धन, मानवजाति के साथ-2 सम्पूर्ण प्राणिजगत् के लिए निरन्तर गम्भीर अनिष्ट का कारण बनते जा रहे हैं। यह सब पाश्चात्य जीवन शैली के अन्धानुकरण का भी फल है। इस कारण आज सर्वोपरि आवश्यकता इस बात की है कि हम कथित विकास व पाश्चात्य सभ्यता की अंधी दौड़ से बाहर निकलें और वेदों, ऋषियों व देवों की सनातन संस्कृति व ज्ञान-विज्ञान के प्रति जिज्ञासा व श्रद्धा का भाव जगाने के साथ-2 अपने अन्दर राष्ट्रिय स्वाभिमान एवं यथार्थ मानवता को जगाएं।
आइए, हम सृष्टि के रचयिता विष्णु के कर्मों को देखने का प्रयास करते हैं- यह सृष्टि सबसे सूक्ष्म पदार्थ प्रकृति के विकृत होने से बनी है। प्रकृति में सर्वप्रथम ‘ओम्’ की परा वाणी की उत्पत्ति ईश्वर द्वारा की जाती है। उस ‘ओम्’ के स्पन्दन से अनेक प्राण व मरुत् एवं वैदिक छन्द रश्मियों के स्पन्दन होने लगते हैं। हम अथवा संसार के मनुष्य जिन वेदों को मात्र हिन्दुओं का धर्मग्रन्थ मानते हैं, वे वेद वस्तुतः ब्रह्माण्डीय ग्रन्थ हैं। सभी वेदमन्त्र सृष्टि निर्माण के समय व इस समय उत्पन्न हो रहे स्पन्दन हैं। इन स्पन्दनों से ही आकाश, कण, क्वाण्टा आदि सभी सूक्ष्म पदार्थों एवं उनसे सभी लोक-लोकान्तरों व हमारे शरीरों व वनस्पतियों की उत्पत्ति हुई है। इस कारण वेद न केवल पृथिवीस्थ मनुष्यों, अपितु सम्पूर्ण सृष्टि में जो भी मनुष्य के समान बुद्धिमान् प्राणी रहते हैं, उन सबका विद्या व धर्म का ग्रन्थ है परन्तु इसके साथ-2 उपादान रूप में सभी प्राणियों व सभी जड़ पदार्थों का कारण रूप भी है। इस सृष्टि में अनेक प्रकार की रश्मियाँ होती हैं। उनके पृथक्-2 गुण, कर्म व स्वभाव होते हैं परन्तु समानता यह होती है कि सभी एक परमात्मा के बल व ज्ञान से व एक प्रकृति पदार्थ से उत्पन्न होती हैं। हम सभी विष्णु के इस कर्म से यह सीखें कि हम सब संसार के न केवल मनुष्य, अपितु सभी प्राणी एक ईश्वर की सन्तान हैं तथा हम सबके शरीर एक ही पदार्थ प्रकृति से बने हैं, इसके साथ ही हम सबके शरीरों में वेद मंत्र ही पश्यन्ती वा परावस्था में निरन्तर गूँज रहे हैं। अतः हम सभी प्राणी परस्पर भाई-भाई के समान एक परिवार के सदस्य हैं। कोई छोटा व बड़ा नहीं है। इसी कारण वेद ने कहा-
‘समानी प्रपा सह वोऽन्नभागः’ (अथर्ववेद 3.30.6)
अर्थात् हमारे पेय व भोज्य पदार्थ समान हों, अर्थात् स्वास्थ्यवर्धक भोजन पर सबका समान अधिकार होना चाहिए। वर्तमान प्रबन्धन में इसका कोई विचार नहीं है।
इसके कारण हम जहाँ व जिस भी रूप हों, विकास व प्रबन्धन की जो भी योजना बनाएं, वे योजना सर्वहितकारिणी ही होनी चाहिए। यदि हमारा विकास किसी भी प्राणी के हितों के प्रतिकूल होगा, तब उसे विकास नहीं कह सकते, क्योंकि वह किसी के विनाश का कारण भी होगा। इसी कारण महर्षि दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज के छठे नियम में संसार का उपकार करना अर्थात् शारीरिक, आत्मिक व सामाजिक उन्नति करना प्रमुख उद्देश्य बताया तथा ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ नामक ग्रन्थ में विज्ञान का मुक्चय लक्षण सृष्टि एवं सृष्टा को ठीक-2 जानकर सभी प्राणियों का हित साधना बताया है। विज्ञान व वैज्ञानिक का ऐसा लक्षण किसी भी विचारक के मन में आया ही नहीं। ऋषि दयानन्द जी की इस परिभाषा से विचार करें, तो इस भूमण्डल पर कहीं भी विज्ञान दिखाई नहीं देता।
इस कारण प्रत्येक समर्थ मनुष्य का अनिवार्य कर्तव्य है कि वह सदैव निर्बलों के उपकार में तत्पर रहे। वह अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहकर सबकी उन्नति में ही अपनी उन्नति समझे, यही ऋषि दयानन्द ने कहा है। अब जरा सृष्टि पर विचार करें, तो इसका प्रत्येक पदार्थ अपने लिये नहीं, बल्कि जीवों की भलाई के लिए बना है।
इस सृष्टि में विष्णु का दूसरा कर्म यह दिखाई देता है कि प्रत्येक पदार्थ निरन्तर कर्मशील है। हम जिन पदार्थों को स्थिर समझते हैं, वे वस्तुतः कभी भी स्थिर नहीं रहते, बल्कि सतत गतिशील रहते हैं, उनके अवयव और अधिक गतिशील रहते हैं। वर्तमान विज्ञान भी इससे कभी नहीं नकार सकता। वैदिक पद ‘जगत्’ तो स्वयं स्पष्ट कर रहा है कि जो निरन्तर गमन करता है, उसे ‘जगत्’ कहते हैं, उसे संसार भी कहते हैं। वह कभी भी विश्राम नहीं करता, आलस्य व प्रमाद नहीं करता। इसीलिए वेद ने कहा है-
‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत्’ (यजुर्वेद 40.2)
अर्थात् प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि वह शुभ कर्म करते हुए ही जीने की इच्छा करे। इससे यह अर्थ भी स्वतः प्रकट होता है कि आज मानव की, विशेषकर भारतीयों की यह प्रवृत्ति हो गयी है कि बिना श्रम के अधिक सम्पदा पाना चाहता है। इसके लिये वह अपनी मय्र्यादाओं का अतिक्रमण करके परद्रव्य का हरण करने का प्रयत्न करता है, तो कोई निष्क्रिय व आलसी होकर दुःखी जीवन व्यतीत करने को विवश होता है, तो कोई इसे ही अपना भाग्य मान बैठता है। किसी भी राष्ट्र के लिये उसके नागरिकों की यह प्रवृत्ति बहुत घातक होती है। आज हमारे देश में हड़ताल, प्रदर्शन, धरने, तोड़-फोड़ आदि जो भी देखा जा रहा है वा देखा जाता रहा है, उसका एक बड़ा कारण शासन की कुछ भूलों के अतिरिक्त नागरिकों की यह प्रवृत्ति भी है। यह प्रवृत्ति न केवल भारत में, अपितु सम्पूर्ण विश्व में अशान्ति वा निर्धनता का एक बड़ा कारण बनी हुई है। इसलिए प्रत्येक राष्ट्र-हितैषी नागरिक का कर्तव्य है कि वह पुरुषार्थी बने और अपने अपने पुरुषार्थ पर ही विश्वास करे, बिना श्रम कोई भी सुविधा पाने की स्वप्न में भी इच्छा न करे, क्योंकि ऐसा करना शास्त्र की दृष्टि में चोरी ही है। ध्यान रहे, पुरुषार्थ का कोई विकल्प नहीं है।
इसके पश्चात् विष्णु का तृतीय कर्म यह देखा जाता है कि सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ अन्य पदार्थों के साथ संगतिकरण करते हुए ही अपना कर्म करता है, न कि किसी को नष्ट करके अपना लक्ष्य प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। प्रत्येक रश्मि का अन्य रश्मियों के साथ पूर्ण समन्वय व संगतिकरण होता है, प्रत्येक मूलकण व क्वाण्टा का अन्य कणों व क्वाण्टा के साथ संगतिकरण वा समन्वय होता है। यदि यह समन्वय विकृत हो जाये वा नष्ट हो जाये, तो सम्पूर्ण सृष्टि पर संकट आ सकता है। किसी एटम में एक इलेक्ट्राॅन ही इधर उधर हो जाये, तो एटम का स्वरूप ही परिवर्तित हो जाता है। शरीर में मस्तिष्क के साथ शरीर के अन्य अंगों का समन्वय नहीं रहे, तो क्या होगा? सभी जानते हैं। सृष्टि के इस कर्म को देखकर प्रत्येक मानव का कर्तव्य है कि वह प्रत्येक मनुष्य ही नहीं, अपितु प्रत्येक प्राणी के साथ समन्वय व संगतिकरण करके ही जीवन जीए अर्थात् ‘जीओ और जीने दो’ की सनातन परम्परा, जो ‘अहिंसा परमोधर्मः’ (महाभारत) एवं ‘मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे’ (यजुर्वेद 36.18) के आदर्शों पर टिकी है, को निरन्तर पल्लवित करता रहे। आज संसार भर में यह कर्म कहीं देखा नहीं जा रहा है। अधिकांश व्यक्ति स्वार्थी एवं भोगवादी प्रवृत्ति में जीते रहकर दूसरों को नष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं। धनी निर्धन का, ज्ञानी अज्ञानी का, बलवान् निर्बल का शोषण कर रहा है। देश व संसार की अधिकांश सम्पत्ति मात्र कुछ पूंजीपतियों के हाथ में सिमट चुकी है। वे पूंजीपति अपनी तृष्णा को निरन्तर बढ़ाते ही जा रहे हैं। राजसत्ताएं भी इन पूंजीपतियों के हाथों की कठपुतली मात्र बन गयी हैं। करोड़ों बच्चे भूखे व नंगे फुटपाथों वा झुग्गी झोंपडियों में अभिशप्त जीवन जीने को विवश हैं। इससे वर्गसंघर्ष, हिंसा, प्रतिशोध व अराजकता का वातावरण बनता जा रहा है, ऐसे में न तो हमारे देश का भविष्य सुरक्षित दिखाई दे रहा है और न विश्व का। निर्धनता व धनसम्पन्नता के मध्य बहुत अधिक बढ़ती दूरी किसी भी राष्ट्र के लिए अत्यन्त घातक है। किसी राष्ट्र वा समाज अथवा संस्थान में ऐसा कोई प्रबन्धन कभी कल्याणकारक नहीं हो सकता, जहाँ उच्च व निम्र वर्ग की आय में बहुत अधिक भिन्नता होती है। सर्वहितकारिणी व्यवस्था हम ईश्वरीय कर्मों से ही सीख सकते हैं। जरा विचार करें कि यदि हमारे शरीर में शरीर के किसी अंग में आवश्यकता से अधिक रक्त पहुँचे और किन्हीं अंगों में रक्त प्रवाह कम होवे, तब सम्पूर्ण शरीर ही रोगी हो जायेगा, जिसमें न्यून रक्त वाला अंग तो रुग्ण होगा ही, अधिक रक्त वाला अंग भी रुग्ण होगा। आज देश व विश्व भी ऐसा रुग्ण हो चुका है, जहाँ आज दुर्बल व निर्धन दुःखी हैं, भयाक्रान्त हैं, तो भविष्य में धनी व बलवान् भी दुःखी होने को विवश होंगे, विश्व अराजकता, आतंकवाद व नक्सलवाद वैसी समस्याओं से त्रस्त हो उठेगा। यदि कोई तन्त्र दुर्बलों को दबा कर अराजकता को रोकना चाहेगा, तो इसका परिणाम और अधिक भीषण होगा, जो ईश्वरीय व्यवस्था ही करेगी।
सृष्टि में ईश्वर का एक अन्य कर्म यह देखा जाता है कि प्रत्येक पदार्थ अपनी योग्यता के अनुसार ही कार्य में नियुक्त होता है। कोई अपने से श्रेष्ठ का स्थान लेने के लिए न तो संघर्ष करता है और न उसे वह स्थान मिलता ही है। सम्पूर्ण सृष्टि में न तो किसी को वरीयता प्रदान की जाती है और न किसी की उपेक्षा ही होती है। हाँ, यह अवश्य है कि जब कुछ छन्द रश्मियाँ कार्य करते-2 दुर्बल हो जाती हैं, तो उन्हें पृथक् करके पुनः सबल होने पर कार्य में नियुक्त किया जाता है। कुछ छन्द रश्मियाँ दुर्बल रश्मियों को बल भी प्रदान करती हैं। विष्णु के इस कर्म से शासन को सीखना चाहिए कि कथित जाति, सम्प्रदाय, भाषा, लिंग, क्षेत्र, रंग आदि के नाम पर न तो किसी को वरीयता दे और न किसी का तिरस्कार करे और न ही कोई ऐसे पक्षपात की मांग कर सके। हाँ, दुर्बल को प्रोत्साहित अवश्य किया जाये, उसे योग्य बनाने का उचित व न्यायसंगत अवसर अवश्य प्रदान किया जाये परन्तु बिना योग्यता के अधिकार कदापि नहीं दिया जाये। आज हमारे देश में सृष्टि विरुद्ध ऐसा अनाचार व्यापक रूप से हो रहा है। न शासन को इसका ज्ञान है और न प्रजा को, सर्वत्र अन्धकार व स्वार्थ का ही साम्राज्य दिखाई देता है।
ईश्वरीय सृष्टि में अगला कर्म यह दिखाई देता है कि कभी-2 असुर रश्मियाँ वा असुर पदार्थ, जिसकी वर्तमान विज्ञान के डार्क मैटर वा डार्क एनर्जी से पूर्णतः तुलना नहीं कर सकते हैं, किन्हीं कणों के संयोग में बाधा पहुँचाते हैं, उस समय इन्द्र नामक तीक्ष्ण विद्युत् तरंगें उन असुर पदार्थों को नष्ट कर देती हैं। इसी प्रकार राज प्रबन्धकों का अनिवार्य कर्तव्य है कि जब कभी समाजकण्टक वा राष्ट्रविरोधी तत्त्व अराजकता उत्पन्न करें, दुर्बलों का शोषण करें, तब उन्हें न्याययुक्त बलपूर्वक नष्ट कर दें, क्योंकि अराजक राष्ट्र में कोई सुखी नहीं रह सकता। समाज का सुसंगठित रहना अत्यावश्यक है। इसी प्रकार अकर्मण्य व भ्रष्ट राजा हो वा प्रजा, सबको अपराध के अनुसार अवश्य दण्डित करें, अन्यथा उसके कारण सम्पूर्ण व्यवस्था चरमरा जायेगी। हाँ, इतना अवश्य है कि दण्ड देते समय भी मानवीय मूल्यों का त्याग कभी नहीं करना चाहिए और निरपराध को कभी भी दण्ड नहीं देना चाहिए। न्यायार्थ दण्ड किसी भी राष्ट्र व समाज के लिए अनिवार्य है। इसे भगवान् मनु ने इस प्रकार कहा है-
‘दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति। दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः।। (मनु. 7.18)
दण्ड व्यवस्था के विषय में भगवान् मनु का यह भी कथन है कि जो जितना अधिक प्रबुद्ध वा समर्थ हो, उसे समान अपराध करने पर भी अशिक्षित व निर्बल की अपेक्षा अधिक दण्ड दिया जाये। उन्होंने स्पष्ट किया है कि किसी श्रमिक की अपेक्षा सामान्य व्यापारी, पशुपालक वा कृषक को समान अपराध करने पर दो गुना दण्ड, सुरक्षा वा प्रशासनिक अधिकारी को चार गुना, धर्माचार्य वा शिक्षाविद् को आठ से लेकर सोलह गुना, मंत्री वा बड़े नेताओं को एक सौ गुना तथा राजा अर्थात् वर्तमान व्यवस्था में मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री वा राष्ट्रपति को एक सौ पच्चीस गुना दण्ड देना चाहिए। आज विश्व में बड़े-बड़े उद्योगपति किसी भी प्रकार इनसे न्यून सामर्थ्य वाले नहीं होते, इस कारण उन्हें भी इतना दण्ड देना चाहिए। ईश्वर की सृष्टि में भी हल्के पदार्थ को उठाने, फैंकने वा नियन्त्रित करने में न्यून बल तथा विशाल लोकों को प्रक्षिप्त करने में बहुत अधिक बल की आवश्यकता होती है, यह कर्म भी हमें मनुनिर्दिष्ट वेदोक्त दण्ड व्यवस्था पर चलने का संकेत करता है। वर्तमान प्रबन्धन में इसका विपरीत देखा जाता है, जो सृष्टिविज्ञान अर्थात् ईश्वर के विरुद्ध होने से अपराध है, जिसका कभी सुफल प्राप्त नहीं हो सकता। हाँ, कुफल अवश्य भोगना पड़ता है और हम भोग भी रहे हैं।
इस प्रकार हम सृष्टि रचयिता परमात्मा के कर्मों को देखकर अपने कर्मों का सुधार करें, ईश्वर को अपना आदर्श मानें, यही वास्तविक ईश्वर पूजा है। बाह्य-आडम्बरों से ईश्वर पूजा का कोई सम्बंध नहीं है। जिस प्रकार ईश्वर सम्पूर्ण सृष्टि का न्याययुक्त सर्वहित में प्रबन्धन करता है, उसी प्रकार हम भी अपने परिवार, उद्योग, व्यापार, कार्यालय, समाज, राष्ट्र वा विश्व का प्रबन्धन करें। ध्यान रहे, ईश्वर से बड़ा हमारा न कोई गुरु हो सकता है और न मार्ग-दर्शक माता-पिता। उससे बड़ा तो क्या, उसके समकक्ष भी कभी कोई प्रबन्धक राजा नहीं हो सकता। जैसे सृष्टि का प्रबन्धक न्यायकारी होने के साथ दयालु भी है, उसी प्रकार किसी भी प्रबन्धक को चाहिए कि अपने प्रबन्धन में रहने वालों के साथ दया व न्याय से युक्त व्यवहार ही सदैव करे।
यही वास्तविक प्रबन्धन है, जो हमें सृष्टि से ही सीखना चाहिए, न कि सृष्टिविद्या से अनभिज्ञ पाश्चात्य शैली के प्रबन्धक गुरुओं से। जब तक अय्र्यावर्त (भारत) में वेदानुकूल अर्थात् सृष्टिविद्या के अनुकूल प्रबन्धन था, शासन था, तब तक यह हमारा देश सुखी, समृद्ध, सशक्त, जगद्गुरु व चक्रवर्ती राष्ट्र रहा। वह अपने बल से नहीं, बल्कि चरित्र व विज्ञान से ही सबका मार्गदर्शक था। यदि हम पुनः प्राचीन वैदिक आदर्शों पर चलने लगें, तो फिर से हमारा राष्ट्र उसी शिखर पर पहुँच सकता है।